पुस्तक अंश: नेहरू के लिए "भारतमाता की जय" के क्या मायने थे?

पीयूष बबेले की किताब "नेहरू: मिथक और सत्य" का पहला संस्करण आज से तीन साल पहले दिसम्बर 2018 में प्रकाशित हुआ था। आमजन की सरल भाषा में लिखी गई यह किताब बेहद अच्छी है। किताब में लगभग 45 अध्याय और सात खण्ड हैं। हमारे पाठकों के लिए यह महत्वपूर्ण उद्धरण इसी किताब से पेश किया जा रहा है। 

जब हम भारतमाता की जय बोलते हैं, तो हम भारत के 30 करोड़ लोगों की जय बोलते हैं। उन 30 करोड़ लोगों को आज़ाद करने की जय बोलते हैं। इस तरह हम सब भारतमाता का एक एक टुकड़ा हैं और हमसे मिलकर ही भारतमाता बनती है। तो जब भी हम सब ‘भारतमाता की जय’ बोलते हैं तो असल में अपनी ही जय बोल रहे होते हैं और जिस दिन हमारी ग़रीबी दूर हो जाएगी, हमारे तन पर कपड़ा होगा, हमारे बच्चों को अच्छी से अच्छी तालीम मिलेगी, हम सब खुशहाल होंगे, उस दिन भारतमाता की सच्ची जय होगी। 

-जवाहरलाल नेहरु

भारत में मई 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से राष्ट्रवाद शब्द कुछ ज़्यादा ही चर्चा में आने लगा है। सामान्य तौर पर राष्ट्रवाद शब्द का उपयोग ग़ुलाम देशों में होता है। आज़ाद मुल्कों में राष्ट्रवाद की जगह राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रनिर्माण या राष्ट्रसेवा शब्द का उपयोग होता है। 

राष्ट्रवाद शब्द को उत्सव का रूप देने के लिए इन दिनों तीन चीज़ों का मुख्य रूप से सहारा लिया जा रहा है, वे तीन चीज़ें हैं: भारतमाता, राष्ट्रध्वज तिरंगा और राष्ट्रगान। चौंकाने वाली चीज़ यह है कि आज़ादी के 70 साल बाद सरकार और अदालतें राष्ट्र के इन प्रतीकों को लेकर इतनी ज़्यादा चौकन्नी हो गई हैं कि लोगों को वाक़ई ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं किसी प्रतीक-पूजा में कमी रह जाने से बैठे-ठाले वे देशद्रोही न बन जाएँ। 

अब भारतमाता शब्द को ही ले लीजिए। इस दौरान “भारतमाता की जय” के नारे पर इस क़दर ज़ोर दिया गया कि अगर कोई भूल चूक से इस शब्द को नहीं बोल पाता तो उसके ऊपर राष्ट्रद्रोही होने की तलवार लटकती रहती है। ऐसे बहुत से वाकिये सामने आए जब किसी मुसलमान व्यक्ति पर इस बात का दबाव डाला गया कि वह “भारतमाता की जय” बोले। ज़्यादातर मामलों में लोगों ने “भारतमाता की जय” बोली, लेकिन जहां नहीं बोली, वहाँ उनके साथ मारपीट की नौबत तक आ गई। 

सबसे चर्चित वाक़िया मार्च 2016 में सामने आया जब हैदराबाद से सांसद असदउद्दीन ओवैसी ने कहा कि वह “जय हिन्द” बोल सकते हैं, लेकिन “भारतमाता की जय” नहीं बोलेंगे। उन्होंने दलील दी कि भारतमाता एक बुत है और मुसलमान बुत की पूजा नहीं कर सकता। जहाँ तक मादर ए वतन से मुहब्बत का सवाल है तो वह “जय हिन्द” बोल ही रहे हैं। इस बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने कलकत्ता में कहा कि जो “भारतमाता की जय” नहीं बोल सकता, उसे किसी और देश चले जाना चाहिए। 

यह मामला इतना आगे बढ़ा कि महाराष्ट्र विधानसभा ने 6 मार्च 2016 को ओवैसी की पार्टी के एक विधायक वारिस पठान को इसलिए सदन से निलंबित कर दिया क्यूंकि उन्होंने भी “हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद” तो बोला, लेकिन “भारतमाता की जय” बोलने से मना कर दिया। खास बात यह रही कि सदन में मौजूद भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना, भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस और राष्ट्रवादी कॉंग्रेस पार्टी के किसी भी सदस्य ने इस पूरे घटनाक्रम पर कोई ऐतराज़ नहीं किया। विधानसभा में विधान बनाने वाले के नागरिक अधिकारों का चीरहरण खुद विधायकों ने कर डाला। 

नेहरू को इन बातों का अंदाज़ा अपने ही वक़्त में लग गया था। उन्हें अंदेशा था कि देश में आगे भी मुसलमानों पर राष्ट्रभक्ति साबित करने के लिए बेजा दबाव बनाया जाएगा। इसलिए 1 मार्च 1950 को मुख्यमंत्रियों को संबोधित पत्र में हिन्दू महासभा की गतिविधियों से आगाह करते हुए नेहरू लिखते हैं:

“हममें से कुछ लोगों की यह फ़ितरत है कि वे भारत के मुसलमानों से देश के प्रति वफ़ादारी साबित करने के लिए और पाकिस्तान समर्थक प्रवृतियों की निंदा करने की मांग करते हैं। इस तरह की प्रवृतियाँ निश्चित तौर पर ग़लत हैं और उनकी निन्दा की जानी चाहिए। लेकिन मैं समझता हूँ कि हर बार भारतीय मुसलमानों के वफ़ादारी साबित करने पर ज़्यादा ज़ोर डालना ग़लत है। वफ़ादारी किसी आदेश या भय से पैदा नहीं होती। यह वक़्त के सहज प्रवाह में अपने आप पैदा होती है और धीरे-धीरे न सिर्फ़ एक प्रेरक मनोभाव बन जाती है बल्कि व्यक्ति को लगता है कि इसी में उसका भला है। हमें ऐसे हालात बनाने होंगे जिसमें लोगों के अंदर इस तरह के मनोभाव पैदा हों सकें। किसी भी हाल में अल्पसंख्यकों की निन्दा करने और उन पर दबाव बनाने से कोई फ़ायदा नहीं होगा”।

नेहरू अपने वर्तमान और देश के भविष्य को समझ पा रहे थे, क्यूंकि महात्मा गांधी के बाद वह ही ऐसे नेता थे जिन्होंने देश के चप्पे-चप्पे की यात्राएं की थीं। इस देश के शहर, कस्बे और दूर-दराज़ के गांवों की नब्ज़ का उन्हें ज़बरदस्त अंदाज़ा था। आज जिस “भारतमाता की जय” पर हंगामा हो रहा है, उस ज़माने में गाँव-गाँव जाकर लोगों को भारतमाता का मतलब समझाना नेहरू का प्रिय शग़ल था। नेहरू की जीवनी में फ्रेंक मॉरिस एक दिलचस्प वाकिये का ज़िक्र करते हैं। यहाँ नेहरू गाँव वालों को समझा रहे हैं कि भारतमाता कौन है और जब हम “भारतमाता की जय” बोलते हैं तो असल में किसकी जय बोल रहे होते हैं। मशहूर निर्देशक श्याम बेनेगल ने पंडित नेहरू की किताब “डिस्कवरी ऑफ इंडिया” पर “भारत एक खोज” धारावाहिक बनाया तो उसकी पहली कड़ी की शुरुआत “भारतमाता की जय” के मायने समझाने से ही की है। 

एक वाक़िया 1920 के दशक का है।  तब तक संयुक्त प्रांत (अब उत्तरप्रदेश) के किसानों की लड़ाई लड़ते-लड़ते नेहरू देश के किसान नेता बन चुके थे। वह पंजाब के ग्रामीण इलाक़े के दौरे पर गए। एक गाँव के किसानों ने “भारतमाता की जय” के नारों के साथ उनका स्वागत किया। जवाब में नेहरू जी ने भी “भारतमाता की जय” के नारे से ही अपना संवाद शुरु किया। उन्होंने लोगों से पूछा कि आप जिसका जयकारा लगा रहे हैं, वह भारतमाता कौन है? कुछ लोगों ने कहा कि यह धरती ही उनकी माता है। फिर भी कुछ लोगों ने कहा कि ये नदी, पहाड़, खेत-खलिहान, यही सब मिलकर भारतमाता बनती है। इसे अंग्रेज़ों के ज़ुल्म से आज़ाद कराना है।

तब नेहरू जी ने कहा, ये सब बातें जो आपने भारतमाता के बारे में बताईं, वे हैं तो सही लेकिन ये तो हमेशा से हैं। आखिर धरती को या नदी-पहाड़ों को तो आज़ादी चाहिए नहीं। आज़ादी तो इस धरती पर रहने वाले हम इंसानों को चाहिए। अंग्रेज़ी राज में ज़ुल्म, ग़रीबी और भुखमरी का सामना तो आखिरकार हम भारत के लोग ही कर रहे हैं। अगर हम न हों तो इस धरती को भारतमाता कौन कहेगा?आखिर हम जो भी कर रहे हैं, वह हम अपनी आज़ादी के लिए ही तो कर रहे हैं। इसलिए जब हम “भारतमाता की जय” बोलते हैं तो हम भारत के 30 करोड़ लोगों की जय बोलते हैं। उन 30 करोड़ लोगों को आज़ाद कराने की जय बोलते हैं। इस तरह हम सब भारतमाता का एक-एक टुकड़ा हैं और हमसे मिलकर ही भारतमाता बनती है। तो जब भी हम “भारतमाता की जय” बोलते हैं तो असल में हम अपनी ही जय बोल रहे होते हैं। और जिस दिन हमारी ग़रीबी दूर हो जाएगी, हमारे तन पर कपड़ा होगा, हमारे बच्चों को अच्छी से अच्छी तालीम मिलेगी, सब खुशहाल होंगे, उस दिन भारतमाता कि सच्ची जय होगी। 

जो बात नेहरू 1920 के दशक में कह रहे थे, वही बात 1960 के दशक में भी दोहराते हैं। भारत की बड़ी नदी घाटी बांध परियोजना के उद्घाटन का काम नेहरू अकसर वहाँ मौजूद किसी मज़दूर से कराते थे। वह मिट्टी में सने कामगारों के साथ बैठ जाते थे और उन्हें बताते कि तुम मिट्टी नहीं ढो रहे हो, अपना मुल्क बना रहे हो। वह उनसे कहते थे कि तुम मज़दूर तो, लेकिन असल में तुम ही भारत माता हो। 

नेहरू के लिए “भारतमाता की जय” एक बहुत सीधा सा फ़लसफ़ा था। देश की जनता ही उनकी भारतमाता थी। उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की उस काली माँ की आवश्यकता नहीं पड़ती थी जिसके हाथ में भगवा ध्वज होता था। आरएसएस इसी सिंहवाहिनी के हाथ में भगवा ध्वज पकड़ाकर उसे अपनी भारतमाता कहा करता था और अब भी उनकी भारतमाता की तस्वीर बदली नहीं है। वह भारतमात जितनी हिंदुत्ववादियों के ज़हन में जमी हुई है, उसकी उतनी ही परछाई मुसलमानों के अवचेतन में भी है। इसलिए जैसे ही उनसे “भारतमाता की जय” कहने को कहा जाता है उनके लिए एक सांप्रदायिक सवाल खड़ा हो जाता है। जबकि गांधी और नेहरू की भारतमाता तो हर आदमी खुद ही है, अब ऐसे में वह चाहे तो अपनी जय बोले और चाहे न बोले। दोनों सूरत में वह देशभक्त रहेगा क्योंकि अपनी जय बोलने का मतलब यह तो नहीं है कि हम अपने आप से प्यार नहीं करते। 

एक तरफ़ नेहरू अगर अवाम को यह समझा रहे थे कि भारतमाता कौन है, तो दूसरी तरफ़ वह भारतमाता के नारे के तौर पर दुरुपयोग होने के अंदेशे से भी खूब वाक़िफ़ थे। इसका भी एक वाक़िया फ्रेंक मॉरिस ने नेहरू की जीवनी में दर्ज किया है। 

हुआ यह कि देश नया-नया आज़ाद हुआ था। तब तक महात्मा गांधी की हत्या नहीं हुई थी, लेकिन विभाजन के बाद देश सांप्रदायिक दंगों और लूटपाट के दौर से गुज़र रहा था। ऐसे में देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद के पास के ग्रामीण इलाक़े से गुज़र रहे थे। यह वही ग्रामीण भारत था जहां विदेश से पढ़कर आए जवाहरलाल ने एक किसान नेता के तौर पर अपना राजनैतिक कैरियर शुरू किया था। इन्हीं गांवों की दुर्दशा और किसानों के दर्द ने नेहरू को बैरिस्टर की जगह किसानों का मसीहा बनाया था। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद इन्हीं रास्तों पर वह क्या देखते हैं कि गाँव वालों का एक जत्था मुसलमानों से लूटा हुआ माल लादे चले आ रहा है। जब इन लोगों ने नेहरू को देखा तो वे “महात्मा गांधी ज़िन्दाबाद”, “पंडित नेहरू ज़िन्दाबाद” और “भारतमाता की जय” के नारे लगाने लगे। नेहरू ने उस जत्थे को जलती हुई निगाहों से देखा और ललकारा: 

हाथ में अपने भाइयों से लूटा हुआ माल लेकर महात्मा गांधी और “भारतमाता की जय” का नारा लगाते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती। इन गंदे हाथों से बापू के नाम की मुट्ठियाँ भाँजते तुम्हारे हाथ नहीं काँपते!

वह ज़माना और था। लोगों ने गुस्से में आकार लूटपाट तो की थी, लेकिन दिल से वे लुटेरे नहीं थे और देश का प्रधानमंत्री तब हरदिल अज़ीज़ नेता था। उसके पास नैतिक बल था। लोगों ने लूट का माल रख दिया। अपने किये पर माफ़ी मांगी। नेहरू ने भी उन्हें समझाया कि इस गाढ़े वक़्त में भारतमाता के लिए क्या करना है और क्या नहीं। 

समय आगे बढ़ गया। लेकिन प्रवृतियाँ नहीं बदलीं। मार्च 2016 में ही दिल्ली में एक लड़के को पाँच लड़कों ने इसलिए बुरी तरह पीट, क्योंकि वह उनके कहने पर “भारतमाता की जय” नहीं बोल रहा था। सन 1947 और 2016 में फ़र्क़ यह था कि तब भारतमाता की आज़ादी के लिए 10 साल से ज़्यादा का वक़्त जेल में बिताने वाला प्रधानमंत्री भारतमाता के नाम पर गुंडागर्दी को अपने हाथ से रोक सकता था, जबकि 2016 का कथित राष्ट्रवादी नेतृत्व इस तरह की गुंडागर्दी के बिना राष्ट्रवाद की कल्पना नहीं कर पा रहा है। 

लेकिन देर-सवेर इस प्रवृति के लोगों को भी असली राष्ट्रवाद या असल में कहें तो राष्ट्रसेवा को समझना होगा। क्योंकि जब ज़िम्मेदारियाँ आएंगी तो उनसे कोई नहीं भाग पाएगा। ज़िम्मेदारी के उन क्षणों में राष्ट्र को समझने के लिए उन लोगों को नेहरू की दिल छूने वाली ये बातें रास्ता दिखाएंगी। 

ज़रा 15 अगस्त 1948 का लाल क़िले से दिए भाषण का एक हिस्सा देखिए:

“क्या चीज़ है हिन्दुस्तान! हिन्दुस्तान एक बहुत ज़बरदस्त चीज़ है जो कि हज़ारों बरस पुरानी है। लेकिन आखिर में हिन्दुस्तान आज क्या है, सिवाय इस के कि जो आप हैं और मैं हूँ और जो लाखों और करोड़ों आदमी हैं, जो मुल्क में बस्ते हैं। अगर हम भले हैं, हम मजबूत हैं, तो हिन्दुस्तान मज़बूत है और अगर हम कमज़ोर हैं तो हिन्दुस्तान कमज़ोर है। अगर हमारे दिल में ताक़त और हिम्मत है और क़ुव्वत है तो वह हिंदुस्तान की ताक़त हो जाती है। अगर हममें फूट है, लड़ाई-कमज़ोरी है, तो हिन्दुस्तान कमज़ोर हो जाता है। हिन्दुस्तान हममें से कोई अलग चीज़ नहीं है। हम हिन्दुस्तान के एक छोटे टुकड़े हैं। हम इसकी औलाद हैं और इसी के साथ याद रखिए कि हम जो आज सोचते हैं और जो कार्रवाई करते हैं, उससे कल का हिन्दुस्तान बनता है। बड़ी ज़िम्मेदारी आप पर, हम पर और हिन्दुस्तान में रहने वालों पर है। “जय हिन्द” हम पुकारते हैं और “भारतमाता की जय” बोलते हैं, लेकिन “जय हिन्द” तो तब हो जब हम सही रास्ते पर चलें, सही खिदमत करें और हिंदुस्तान में ऐसी बात न करें जिनसे इसकी शान कम हो या वह कमज़ोर हो। 

आज़ाद भारत के प्रधानमंत्री की हैसियत से 15 अगस्त 1948 को नेहरू पहली बार लाल क़िले की प्राचीर पर खड़े थे, क्योंकि 15 अगस्त 1947 वाला भाषण तो रेडियो प्रसारण था। भारत की भव्य विरासत को जमुना तट पर अपने भीतर समाए लाल क़िले से नेहरू अपने लोगों को आगाह करते हैं। इसे ग़ौर से पढ़िए क्योंकि यह वार्निंग आज भी लागू है। नेहरू कहते हैं:

हम हिन्दुस्तान को भूल गए, अपने-अपने फ़िरक़े की, अपने-अपने सूबे की बातें सोचने लगे। हम खुदगर्ज़ी में पड़ गए और अगर हम खुदगर्ज़ी में और नफ़रत में और आपसी लड़ाई झगड़े में पड़े तो मुल्क गिरता है। मालूम है आपको इस हिन्दुस्तान की हजारों बरस की तारीख में और इतिहास में क्या चीज़ उभरती है! वह बुनियादी चीज़ भारत की सभ्यता है; और वह है बर्दाश्त करना, मज़हबी लड़ाइयाँ न लड़ना। वह यह है कि जो कोई आए, उससे प्रेम का बर्ताव करना, उसको अपनाना। तो ऐसे मौक़े पर जब कि हम आज़ाद हुए हैं, क्या हम अपने देश का हज़ारों बरस का सबक़ भूल जाएं! और अगर भूले तो फिर हिन्दुस्तान बड़ा मुल्क नहीं रहेगा, छोटा रहेगा। 

चार साल बाद जब देश में पहला आम चुनाव हो चुका और नेहरू निर्वाचित प्रधानमंत्री बन गए, तब 15 अगस्त 1952 को वह फिर से इस मुल्क को उसके मायने समझाते हैं। भाषण के इस हिस्से को ग़ौर से पढ़िएगा और फिर अटल बिहारी वाजपेयी की भारत पर लिखी कविता “भारत एक राष्ट्रपुरुष है” पढ़िएगा। आपको पता चलेगा कि महात्मा गांधी के परिवार और संघ-परिवार की राष्ट्र की कल्पना में बुनियादी फ़र्क़ क्या है? पहले इस हिस्से को पढ़ लीजिए फिर बताएंगे कि बुनियादी फ़र्क़ क्या है? नेहरू कह रहे हैं:

आखिर में यह मुल्क क्या है? यह हिमालय पहाड़ नहीं है, न कन्याकुमारी है। यह मुल्क इसके रहने वाले छत्तीस करोड़ आदमी हैं, मर्द, औरत और बच्चे, और आखिर में इस मुल्क की भलाई बुराई उन छत्तीस करोड़ लोगों की भलाई बुराई है। और आखिर में मुल्क है हमारे छोटी उम्र के लड़के-लड़कियाँ और बच्चे। क्योंकि हमारा, आपका और हमारी उम्र के लोगों का ज़माना तो गुज़रता है। 

शायद आपने ग़ौर किया हो कि यहाँ नेहरू ज़ोर देकर कह रहे हैं कि हिमालय और कन्याकुमारी भारतमाता नहीं हैं, यहाँ की अवाम भारतमाता है और बच्चों का भविष्य ही भारत का भविष्य है। 

दूसरी तरफ़ अटल बिहारी वाजपेयी की कविता “भारत एक राष्ट्रपुरुष है” लम्बे समय तक भाजपा के 11 अशोक रोड मुख्यालय में प्रमुखता से टंगी रही (अब पार्टी मुख्यालय दीनदयाल मार्ग पर बन गया है)। इस कविता में हिमालय से कन्याकुमारी तक भारत के तमाम भूभाग को ही राष्ट्रपुरुष कहा गया है। इस कविता में भारत की जनता का ज़िक्र कहीं नहीं है। यानि नेहरू के लिए राष्ट्र का मतलब जीते-जागते इंसान हैं जबकि वाजपेयी के लिए राष्ट्र का मतलब एक भूभाग है। इसलिए नेहरू को एक भी हिन्दुस्तानी को पहुँचने वाली तकलीफ़ भारतमाता के आंसुओं की शक्ल में दिखती है, जबकि संघ-परिवार के राष्ट्रवाद में भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से की तो गिनती ही नहीं की जाती। 

भारतमाता की सेवा को लेकर नेहरू एक और भावुक अपील करते हैं। आज़ादी की लंबी लड़ाई और गांधी जी के विदा होने के बाद नेहरू जान रहे हैं कि एक पीढ़ी का वक़्त बीत गया है। नेहरू देख रहे हैं कि तमाम ओछे मुद्दे निबटाने में वह और उनके साथी लगे हुए हैं। उन्हें धर्म, भाषा, क्षेत्र, जाति, रियासत और न जाने कितनी तरह के मेरा-तेरा के सवाल देखने पड़ रहे थे। नेहरू जान रहे थे कि इन वाहियात सवालों में वह वक़्त बीता जा रहा है जो नए जन्मे राष्ट्र के निर्माण में खर्च होना चाहिए। 15 अगस्त 1949 को लाल क़िले से नेहरू समझाइश देते हैं:

हमारे और आपके मसले तो हल हो जाएंगे, और किसी तरह नहीं, तो इस तरह से कि हमारा वक़्त पूरा होगा, लेकिन असली चीज़ जिसको हमें याद रखना है, वह है भारत। भारत एक चीज़ है जो अमर है, जो कभी खत्म नहीं होती। तो इस जमाने में जो आप और हम पैदा हुए हैं, इसमें हम क्या कारनामे दिखाएंगे, भारत की खिदमत के और भारत को बढ़ाने के। जाइए, यह सवाल खुद से पूछिए और उसी के मुताबिक़ काम कीजिए। जय हिन्द। 

नेहरू जीवनभर मुल्क को यही समझाते रहे कि राष्ट्र के असली मायने क्या हैं। वह लाल क़िले की प्राचीर पर खड़े होकर न तो छाती ठोंकते थे और न छाती पीटते थे। उन्होंने शायद ही लाल क़िले की प्राचीर से कभी कोई बड़ी घोषणा की हो, जैसा कि उनके और लाल बहादुर शास्त्री के बाद तक़रीबन हर प्रधानमंत्री करता रहा। नेहरू जी तो वहाँ खड़े होकर परिवार के मुखिया की हैसियत से अपने मुल्क से संवाद करते थे, समझाइश देते थे और कई बार तो बाक़ायदा डाँट-डपट कर देते थे। 15 साल प्रधानमंत्री पद पर रहने के बाद 15 अगस्त 1962 को लाल क़िले से नेहरू ने कहा कि भारतमाता को राखी बाँधिए। 

आज रक्षाबंधन है और हम एक दूसरे को राखी बांधते हैं। राखी किस चीज़ की निशानी है। राखी एक वफ़ादारी की, एक दूसरे की हिफ़ाज़त करने की निशानी है। भाई बहन की रक्षा करे। आज आप राखी अपने दिल में भारतमाता को बाँधिए, इसके साथ फिर अपनी प्रतिज्ञा दोहराइए कि आप भारत की सेवा करेंगे, भारत की रक्षा करेंगे, चाहे कुछ भी हो। 

प्रतिज्ञा करें, इक़रार करें कि हम चाहे जो कुछ हों, ऐसी कोई बात नहीं करेंगे जिससे भारत के माथे पर धब्बा लगे। हम भारत की सेवा करेंगे। 

भारत की सेवा करने के माने क्या हैं? भारत कोई एक तस्वीर नहीं है। हमारे दिल में तस्वीर तो है, भारत की सेवा करना, भारत के रहने वालों की सेवा करना, जनता की सेवा करना, जनता को उभारना। बहुत दिनों से दबी हुई जनता उभर रही है, उसकी मदद करना। हमें उसे इस तरह से बढ़ाना है तो हम इसका इक़रार करें और इक़रार करके इस को याद रखें और इस काम को सच्चे दिल से करने की कोशिश करें, हमारा पेशा या काम चाहे जो कुछ हो, सभी के लिए थोड़ा सा एक अलग काम भी है। वह भारत की सेवा का है और भारत की सेवा के माने हैं अपने पड़ोसियों की सेवा और अपने मुल्क वालों की सेवा। सभी को एक समझना है, चाहे वह किसी भी मज़हब का हो। अगर हिन्दुस्तानी हैं तो वे हमारे भाई हैं। यूं तो हमारे बाहर के भाई भी हो सकते हैं लेकिन खास बात यह है कि वे हमारी बिरादरी के हैं। तो मैं चाहता हूँ कि आप ऐसा करें और छोटे झगड़ों में और छोटी बहसों में न पड़ें। रायें अलग अलग होती हैं; यह ठीक है, राय अलग-अलग होनी चाहिए। ज़िंदा क़ौम हैं। हम सभी के दिमाग़ बांध नहीं देते कि वे एक ही तरह से सोचें। एक ही तरह से काम करें। लेकिन बाज़ बातों में अलग राय की गुंजाइश नहीं है। हिन्दुस्तान की खिदमत में अलग राय की गुंजाइश नहीं है। हिन्दुस्तान की रक्षा में, हिफ़ाज़त में अलग राय की गुंजाइश नहीं है। वह हर एक का फ़र्ज़ है, चाहे जो कुछ हो। तो इसका आज हम पक्का इरादा कर लें। रोज़ कुछ याद रखें तो हमारे थोड़े से काम से, थोड़ी-थोड़ी सेवा से एक पहाड़ खड़ा हो जाएगा, जो भारत को बढ़ाएगा और इसकी हिफ़ाज़त करेगा। जय हिन्द।

तो इस तरह नेहरू पूरी ज़िन्दगी “भारतमाता की जय” के मायने समझाते रहे। लेकिन यह तो राष्ट्रवाद का पहला सबक़ था।  इन दिनों राष्ट्रवाद के दो और पॉपुलर रूप हैं: राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान। क्या इन दोनों को भी हम सही पहचान रहे हैं? या फिर चाचा नेहरू की नसीहत की जरूरत है। क्योंकि यह दोनों प्रतीक भारत की संविधान सभा में उन्होंने ही हमें दिए थे।    

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