रफ़ी साहब के गीत 'मेरी आवाज़ सुनो' की कहानी


हिमांशु बाजपेयी 

सावन कुमार टाक नौनिहाल फ़िल्म बना रहे थे। इसके क्लाइमैक्स वाले गाने में नेहरू जी की अंतिम यात्रा के फुटेज इस्तेमाल हुए थे। 

गाना था कैफ़ी आज़मी साहब का लिखा हुआ 'मेरी आवाज़ सुनो' जिसमें नेहरू जी की वसीयत नज़्म थी। 

ये गाना नेहरू जी को खिराजे अक़ीदत था। 

बक़ौल सावन कुमार इतना बड़ा जनसमूह उन्होंने इससे पहले किसी अंतिम यात्रा में नहीं देखा था। न सामने, न फोटो में, न ख्वाबो ख़याल में।

जिस दिन गाने की रिकॉर्डिंग थी स्टूडियो का माहौल बहुत भावुक था। 

कैफ़ी साहब ने बहुत डूबकर ये गाना लिखा था। रिहर्सल में पहले पहल उन्होंने इसे भरे गले से सुनाया था।

सब लोग इसके असर में थे। इस क़दर कि रिकॉर्डिंग मुश्किल थी।

रफ़ी साहब जब भी रेकॉर्डिंग शुरू करते तो इसे गाते गाते अचानक रो पड़ते। 

रिकॉर्डिंग रुक जाती। 

बार बार। कभी एक बंद, कभी दो बंद... बीच ही में उन्हें रुलाई आ जाती। रफ़ी साहब का रोता हुआ स्वर सबके सीनों में तीर सा लग रहा था। संगीतकार मदन मोहन ज़ारो क़तार रो रहे थे।

सावन कुमार की आंखें भी बरस रहीं थी और ये लोग अगर ख़ुद को संभाल पाते तो ऑर्केस्ट्रा में से कोई न कोई अचानक फूट कर रो पड़ता था।

हर बार रिकॉर्डिंग फिर से शुरू की जाती और इस तरह बहुत कोशिशों के बाद ये गाना  हो पाया।

सावन कुमार के अनुसार वहां मौजूद हर आदमी नेहरू जी से आत्मा से जुड़ा था, ख़ुद को उनका ऋणी मानता था। सबके मन में उनके लिए सम्मान का एक सागर लहराता था। नेहरू जी हमारी क़ौम का गौरव थे। वो देश के सबसे बड़े नायक थे और उस दिन हम सबकी आंखें अपने नायक को श्रद्धांजलि दे रहीं थीं।

मेरी आवाज़ सुनो....

नौनिहाल आते हैं अरथी को किनारे कर लो 

मैं जहाँ था इन्हें जाना है वहाँ से आगे 

आसमाँ इनका, ज़मीं इनकी, ज़माना इनका 

हैं कई इनके जहाँ, मेरे जहाँ से आगे 

इन्हें कलियां ना कहो, हैं ये चमनसाज़ सुनो 

मेरी आवाज़ सुनो....


क्यों सँवारी है यह चन्दन की चिता मेरे लिये 

मैं कोई जिस्म नहीं हूँ कि जलाओगे मुझे 

राख के साथ बिखर जाऊंगा मैं दुनिया में 

तुम जहाँ खाओगे ठोकर वहीं पाओगे मुझे 

हर कदम पर है नए मोड़ का आग़ाज़ सुनो...

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